
राजधानी लखनऊ में करोड़ों रुपये की लागत से निर्मित एकाना क्रिकेट स्टेडियम ने भले ही अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई हो, लेकिन बुनियादी नागरिक सुविधाओं के अभाव ने इसे आमजन के लिए बड़ी मुसीबत बना दिया है। हर बड़े क्रिकेट मैच, सांस्कृतिक कार्यक्रम या आयोजन के दौरान शहीद पथ से लेकर आसपास की रिहायशी कॉलोनियों तक घंटों लंबा जाम लग जाता है। छोटे बच्चे, बुज़ुर्ग, महिलाएँ और कामकाजी लोग सड़क पर फँसे रहते हैं, एम्बुलेंस तक रुक जाती हैं और पुलिस-प्रशासन मूक दर्शक बना दिखाई देता है। यह दृश्य किसी छोटे कस्बे का नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की सच्चाई है। सबसे बड़ा और चिंताजनक सवाल यही है कि जब स्टेडियम का निर्माण किया गया, तो समुचित पार्किंग की व्यवस्था क्यों नहीं की गई, और यदि योजना बनी भी थी तो वर्षों से उसका निर्माण अधर में क्यों लटका हुआ है।

स्थानीय निवासियों और रोज़ाना आवागमन करने वाले नागरिकों का आक्रोश अब निराशा और असहायता में बदल चुका है। वर्षों से केवल आश्वासन दिए जा रहे हैं कि “जल्द पार्किंग का निर्माण होगा”, लेकिन ज़मीनी हकीकत यह है कि आज तक स्थिति जस की तस बनी हुई है। विकास प्राधिकरण, प्रशासन और आयोजन एजेंसियों की लापरवाही का सीधा खामियाज़ा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। जिस स्टेडियम को आधुनिकता और विकास का प्रतीक बताया गया था, वही आज राजधानी की यातायात व्यवस्था पर सबसे बड़ा बोझ बन चुका है। यह समस्या सिर्फ ट्रैफिक की नहीं, बल्कि योजना, जवाबदेही और सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग की गंभीर विफलता को उजागर करती है।
यह भी सवाल उठता है कि क्या किसी भी बड़े सार्वजनिक प्रोजेक्ट को बिना पूर्ण नागरिक सुविधाओं के ही स्वीकृति दे दी जाती है? क्या सार्वजनिक सुरक्षा, आपातकालीन सेवाओं और यातायात व्यवस्था की कोई जवाबदेही तय नहीं है? बार-बार शिकायतों, समाचारों और जन-आक्रोश के बावजूद पार्किंग निर्माण को आगे न बढ़ाया जाना कई संदेहों को जन्म देता है। जब करोड़ों की परियोजना का लाभ जनता को नहीं मिलता और उलटे परेशानी बढ़ती जाती है, तब लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्याय पाने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाना ही अंतिम विकल्प बचता है।
अब समय आ गया है कि नागरिक केवल इंतज़ार करने के बजाय ठोस कदम उठाएँ। इस गंभीर लापरवाही के विरुद्ध जनहित याचिका दायर कर न्यायालय से यह मांग की जानी चाहिए कि एकाना स्टेडियम क्षेत्र में पार्किंग निर्माण तत्काल पूरा कराया जाए, उसकी स्पष्ट समय-सीमा तय हो और हर बड़े आयोजन से पहले वैकल्पिक व सुव्यवस्थित पार्किंग व्यवस्था अनिवार्य की जाए। जब प्रशासन सुनने को तैयार न हो और जनता रोज़ाना पीड़ा झेले, तब अदालत में दस्तक देना केवल अधिकार नहीं, बल्कि नागरिक कर्तव्य बन जाता है। शहर की सड़कों पर रोज़-रोज़ होने वाली यह अव्यवस्था सिर्फ ट्रैफिक जाम नहीं, बल्कि आमजन के साथ हो रहा खुला अन्याय है—और इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने आए शिखर अधिवक्ता, उच्च न्यायालय लखनऊ पीठ और उन्होंने जो बोला ओह सच भी है। ऐसी स्थिति देखने को मिलती है दैनिक।
ज्ञान सिंह ब्यूरो रिपोर्ट








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